प्रश्न : बढ़ते तलाक की समस्या? आखिर इस समस्या का निदान क्या है ? आने वाली पीढ़ी आखिर कहाँ जा रही है?-- राय दीजिये !
मेरा विचार : तलाक निश्चित तौर पर आज के इस आधुनिक युग में एक बड़ी सामाजिक समस्या बनकर उभरी है. इसे अगर तथाकथित पढ़े लिखे लोगों की समस्या कहें तो गलत नहीं होगा. श्रीश्रीठाकुर से हमने सीखा है- किसी भी समस्या का कोई न कोई कारण होता है, हमें उस कारण को जानना होगा और तभी हम उसका समाधान निकाल सकते हैं. पहली नजर में 'तलाक' शब्द से एक सम्बन्ध के विच्छेद होने की बात सामने आती है. आखिर सम्बन्ध विच्छेद क्यों होती है ? इसके कारण की विवेचना करें तो पता चलता है - यह वैचारिक वैमनस्य, वैचारिक असहिष्णुता, असहनशीलता, आपसी समझदारी का अभाव, आपसी विश्वास की कमी, आदि आदि के चलते हुआ. इन शब्दों की कमी क्यों हुई- इसकी कई बजहें हैं. इसकी तह तक जायें तो पता चलेगा - इसमें इनके शिक्षा-दीक्षा, वैवाहिक पृष्टभूमि, पारिवारिक माहौल, संगति आदि शामिल हैं.
सबसे पहले हम चर्चा करेंगे विवाह पद्धति पर. क्योंकि विवाह से ही हमलोग एक दूसरे से जुड़ते हैं. अमूमन विवाह के लिए न्यूनतम जिन दो चीजों की जरुरत होती है-वह है 'वर' और 'कन्या' की. जी हाँ- दुल्हे को वर कहा जाता हैं और दुल्हिन को कन्या. 'वर' शब्द से ही श्रेष्ठता का बोध होता है और कन्या शब्द की उत्पत्ति 'कनीय' धातु से हुई है जिसका अर्थ होता है- कनिष्ठ यानि junior . इससे यह पता चलता ही कि शादी के लिये जिन न्यूनतम दो चीजों की जरुरत होती है उनके बीच वरिष्ठ एवं कनिष्ठ का सम्बन्ध है.
श्रीश्रीठाकुर ने कहा है-- ''विवाह मनुष्य की दो प्रधान कामनाओं की परिपूर्ति करता है- एक है उन्नयन और दूसरा है सुप्रजनन''. विवाह सिर्फ दो व्यक्तियों का ही मिलन नहीं हैं, बल्कि यह दो परिवारों का, दो खानदानों का भी मिलन है. आमतौर पर हमलोग विवाह के लिये दो व्यक्तियों के आर्थिक एवं शैक्षिक पहलू पर ही विचार करते हैं. मेरी नजर में समस्या की सूत्रपात यहीं से होती है. आज दोनों ही पक्ष आर्थिक और शैक्षिक तौर पर करीब-करीब समान ही होते हैं. ऐसी स्थिति में समर्पण की बात हास्यास्पद है. प्रकृति ने हमदोनों ही पक्षों के निर्माण में भिन्नता दिखाई है एवं एक दूसरे को एक दूसरे का परिपूरक बनाया है. आज की शिक्षा पद्धति हमें एक अच्छा professional तो बना देती है लेकिन एक अच्छा इंसान नहीं बना सकता. श्रीश्रीठाकुर ने education के सम्बन्ध में कहा है--
''To become mere expert in reading and writing is not to be called education. Without habit, behaviour and common sense; there is no education at all."
आज हमने पढ़ाई-लिखाई में दक्षता तो हासिल कर ली है लेकिन व्यवहारिक ज्ञान में पीछे हैं. यही कारण है कि हम साक्षर तो हैं लेकिन शिक्षित नहीं हैं. इसी अशिक्षा की वजह से, अज्ञानता की वजह से एक दूसरे की पृष्ठभूमि से अवगत नहीं हैं. जब हम एक दूसरे को सही रूप से समझते नहीं हैं, एक दूसरे के प्रति सम्मान नहीं है, एक दूसरे के प्रति वफादार नहीं हैं तो तलाक तो अवश्यम्भावी है. अबतक तो हम समस्या से ही रूबरू हुए हैं. आखिर इसका समाधान क्या है?
एक शब्दों में कहें तो इसका समाधान है - आदर्शग्रहण. आज हम खेल में भी देखते हैं कि अम्पायर और रेफरी होते हैं, रिसर्च करते हैं या नयी जगह घूमने जाते हैं तो गाइड की जरूरत पड़ती है, जीवन के हर क्षेत्र में गाइड की जरुरत होती है. लेकिन इस जीवन को सही रूप से जीने के लिये आज तक हमने इसकी जरूरत नहीं समझी. हमें चाहिए एक आदर्श, एक जीवंत आदर्श. हम जैसे आदर्श में विश्वास स्थापन करेंगे, हम भी वैसे ही होंगे. एक ऐसे आदर्श जिन्होंने अपने जीवन में भी आदर्श ग्रहण किया हो और समाज के सामने एक आदर्श स्थापित किया हो. एक ऐसे आदर्श, जो समस्या का समाधान व्यवहारिक रूप से दे, चमत्कारिक रूप से नहीं. और, ऐसे आदर्श को ग्रहण कर उनके बताये रास्तों पर चल कर ही हम एक इंसान बन सकेंगे. जब हम इंसान होंगे तभी हम समझ सकेंगे एक दूसरे का एक दूसरे के प्रति निर्भरता को. श्री श्री ठाकुर ने कहा है--'' God has created every man with same blood, but of different characteristics." हम सभी एक दूसरे से भिन्न हैं, बाबजूद इसके हम हरेक छोटी से छोटी चीजों के लिये दूसरे पर निर्भर हैं. हमें Independent नहीं बल्कि Interdependent होना सीखना पड़ेगा. तभी हमारे बीच एक विश्वास का भाव आयेगा. आज हमारा समाज आदर्शहीन हो गया है. किसी दार्शनिक ने ठीक ही कहा हैं कि--
''आज इंसान आकाश में पक्षी की तरह उड़ सकता है, समुद्र में मछली की तरह तैर सकता है लेकिन समाज के अन्दर इंसान की तरह रह नहीं सकता.''
वक्त आ गया है कि हम एक इंसान बनकर समाज के बीच रहना सीखें.
आने वाली पीढ़ी की बात क्या करें ? जब हमारा आज ही खराब है तो कल से कितनी उम्मीद करें ? क्योंकि हमारा 'कल' हमारे 'आज' पर ही निर्भर करती है. हमें अपने आज को सुधारना होगा. इन सबके बाबजूद भी थोड़ी सी उम्मीद की किरण दिख पड़ रही है. देखा जा रहा है, आज की पीढ़ी भी आदर्श की महत्ता को समझ रही है और उन्हें ग्रहण कर अपने जीवन को उत्तरोत्तर वृद्धि की दिशा में ले जाने की कोशिश कर रही है.
अतएव, आईये हमसब मिलकर इस समस्या के समाधान हेतु प्रयास करें और एक अच्छे समाज एवं राष्ट्र निर्माण में अपनी योगदान दे.
-- राजीव रंजन, नई दिल्ली